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Jatakarma Sanskar - शिशु को मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाता है यह संस्कार
जैसा की हमने आपको पहले भी बताया है की मनुष्य जीवन में कुल 16 संस्कार है जिनका हमारे जीवन मे बहुत महत्व है। अब तक हम आपको इन 16 संस्कारों में से गर्भ संस्कार, पुंसवन संस्कार और सीमन्तोन्नयन संस्कार के बारे मे जानकारी दे चुके है। गर्भावस्था के समय गर्भ संस्कार का अनुष्ठान किया जाता है। गर्भावस्था के तीसरे महीने के बाद पुंसवन संस्कार किया जाता है और गर्भावस्था के 6 वे या 8 वे माह के बाद सीमन्तोन्नयन संस्कार किया जाता है। अब हम आपको अगले संस्कार यानी कि जातकर्म संस्कार की जानकारी देंगे। यह संस्कार शिशु के जन्म के बाद किया जाता है। जातकर्म संस्कार के अनुष्ठान को करने का मुख्य उद्देश्य शिशु को मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाना है।
क्या है जातकर्म संस्कार (Kya hai Jatakarma Sanskar)
बालक के जन्म के समय जातकर्म संस्कार किया जाता है। जन्म के बाद जो भी कर्म किये जाते है उसे जातकर्म कहते है। इस अनुष्ठान में बच्चों को स्नान कराना, मधु या घी चटवाना, स्तनपान कराना, आदि संबंधित क्रियाओं के विषय में जानकारी दी जाती है। मान्यता है की इस संस्कार को करने से शिशु बलशाली और मेधावी बनता है। इस विधि की मदद से माता के गर्भ मे रसपान दोष, मूत्र दोष, सुवर्ण वात दोष, रक्त दोष, आदि समस्या दूर हो जाती है।
जातकर्म संस्कार का महत्व (Jatakarma Sanskar ka Mahatva)
जब शिशु का जन्म होता है तब जातकर्म संस्कार किया जाता है। वेदों में बताया गया है की जाते जातक्रिया भवेत्। शिशु के जन्म के समय जो भी क्रियाएं की जाती है वो शिशु की शारीरिक शक्ति के लिए की जाती है। इसी को जातकर्म संस्कार कहते है। इस संस्कार में बालक को स्नान कराया जाता है, स्तनपान कराया जाता है, मुख साफ किया जाता है और आयुप्यकरण किया जाता है। बताया जाता है की शिशु के जन्म लेते ही घर में सूतक माना जाता है। इस वजह से कर्मों को संस्कार का रूप दिया जाता है। कहते है की माता के गर्भ में रहते समय शिशु को जो दोष लगते है, जातकर्म संस्कार उसकी शुद्धि करता है।
जातकर्म संस्कार की विधि (Jatakarma Sanskar ki Vidhi)
बालक के जन्म लेते ही कई प्रकार की क्रिया कराई जाती है जो की शिशु की शारीरिक और मानसिक शुद्धि करती है। सबसे पहले सोने की शलाका की मदद से शहद और घी चटाया जाता है। मान्यता है की शहद और घी औषधि के रूप में काम करती है। शिशु के जन्म के बाद पिता को अपने घर के बड़ों को और कुलदेवता को नमस्कार करना होता है। इस के बाद ही पिता को शिशु का चहरा देखना चाहिए। इसके पक्षात नदी, तालाब या फिर किसी पवित्र स्थल पर उत्तर दिशा की ओर देखकर स्नान करना होगा। यदि शिशु का जन्म किसी अशुभ मुहूर्त में हुआ है तो पिता को शिशु का मुख देखने से पहले स्नान करना चाहिए।
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जातकर्म संस्कार के समय की जाने वाली क्रियाएं (Jatakarma Sanskar ke Samay ki Jaane wali Kriyaen)
तालु मे तेल या घी लगाना: नवजात शिशु के तालु की मजबूती के लिए घी या तेल का इस्तमाल करे। जैसे की कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता उसी प्रकार स्वर्ण खाने वाले पर विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसका यह तात्पर्य है की संस्कार की मदद से शिशु की बुद्धि, आयु, स्मृति, वीर्य,नेत्रों आदि मिलाकर सम्पूर्ण पोषण के लिए जातकर्म जरूरी होता है।
स्नान: शिशु के जन्म के बाद उसके शरीर पर उपटन लगाया जाता है। उपटन मे चने के बारीक आटे के बजाए मूंग या मसूर का बारीक आटे का इस्तेमाल करे।
मुख साफ करना बताया जाता है की गर्भ में रहकर शिशु श्वास नहीं ले पाता और ना ही मुख खोल पाता है। प्राकृतिक रूप से शिशु का मुख बंद होता है और इसमे कफ भरा राहत है। इसलिए शिशु के जन्म के बाद मुख से कफ को निकालना आवश्यक है। इसी कारणवश मुख को उंगली से साफ किया जाता है और शिशु को वमन कराया जाता है जिससे की कफ बाहर निकल सके।
जातकर्म संस्कार के प्रमुख उपांग: जातकर्म संस्कार में मेधाजनन, प्रसूतिकाहोम, आयुष्यकरण, अंसाभिमर्षण, पंचब्राह्मणस्थापन, व देशाभिमंत्रण अनुष्ठान के विषय मे वर्णन किया गया है जो की इस प्रकार है:
क. मेधाजनन:
गृह्यसूत्रीय परंपरा के तहत इस अनुष्ठान को दो तरह से किया जा सकता है। प्रथम आश्व. से तहत द्वितीय सांखा से। इसके अनुसार पिता को नवजात शिशु के दाहिने कान मे मातृकहारण मंत्रोच्चार करना होता है। इसे ही मेधाजनन कहते है। पिता के द्वारा नवजात शिशु को अपनी अनामिका अंगुली से मधु और घी का मिश्रण चटवाना होता है। परंतु पारस्कर के अनुसार पिता एक सोने के पात्र मे मधु एवं घी रखकर केवल घी को अपनी अनामिका से शिशु की जिह्वा पर लगाए।
ख. प्रसूतिकाहोम:
इस अनुष्ठान के प्रति गृह्यसूत्रों में मतभेद पाए गए है। आश्व के अनुसार शिशु को मधु एवं घी का सेवन प्राशन से पूर्व करवाया जाता है। वही दूसरी ओर बोधा के अनुसार सम्पूर्ण अनुष्ठान समाप्त हो जाने के बाद ही शिशु को मधु एवं घी का सेवन कराया जाता है।
ग. आयुष्करण:
मेधाजनन अनुष्ठान के उपरांत शिशु की लंबी आयु की कामना करने के लिए इस अनुष्ठान को किया जाता है। इस अनुष्ठान के अंतर्गत शिशु के पिता उसके कान मे यह कहते है "अग्नि वनस्पतियों से, यज्ञ दक्षिणा से, ब्रह्म ब्राह्मणों से, सोम औषधियों से, देवता अमृत से, पितृगण स्वधा से, समुद्र नदियों से आयुष्मान् है, अतएव मैं तत्तत् पदार्थों से तुझे आयुष्मान् करता हूँ।''
घ. अंसाभिमर्षण:
आयुष्करण के साथ ही पिता को शिशु के कंधों का स्पर्श करना होता है और "वत्सप्र' नामक अनुवाक् का दस बार पाठ करना होता है।
ड़. पंचब्राह्मणस्थापना:
इसके बाद पाँच मे से चार ब्राह्मणों को प्रतेक दिशा मे बैठना होता है और पांचवे ब्राह्मण को मध्य मे विराजमान होना पड़ता है। इसके उपरांत पूर्व दिशा में स्थित ब्राह्मण को प्राण, दक्षिण दिशा में स्थित ब्राह्मण को व्यान' का, पश्चिम दिशा में स्थित ब्राह्मण को अपान का, उत्तर दिशा में स्थित ब्राह्मण को "उदान” का तथा मध्यस्थ दिशा में स्थित ब्राह्मण को "समान” शब्द का उच्चारण करना होता है।
च. देशाभिमंत्रण:
इसके पश्चात जिस स्थान पर शिशु का जन्म हुआ है, उस स्थान पर वेद ते भूमिर्ऱ्हदयं मंत्र जाप करके भूमि का यशोगान करना होता है।
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